Sunday, February 26, 2012

इस क़दर..

इस क़दर बात बढ़ जाने लगी,
कि बात क्या है
यह सोच कर ही हंसी आने लगी.
जो चला नहीं मैं तेरी राह पर
दुश्मन तुने कह कर पुकारा
काफ़िर कहा , कभी कहा गुस्ताख
भूला तू हर लम्हा जो था साथ गुज़ारा .
Cigarette का धुआं भी वही है
और प्याले में बची
चाय की कुछ बूँदें भी वही हैं
जो होठों को कभी तेरे और मेरे छूकर निकली थी
और जो यारी का एक छोटा सा सबूत मालूम होती थी .
चल पड़ा तू उस डगर , जो थी कभी तुझे भी नागवार
दूर तू होने लगा , होकर उन अजनबी मौजो पर सवार.
और फिर, इस क़दर बात बढ़ जाने लगी,
कि बात क्या है
यह सोच कर ही हंसी आने लगी.


اس قدر بات بڑھ جانے لگی
ک بات کیا ہے
یہ سوچ کر ہی ہنسی آنے لگی
جو چلا نہیں میں تیری راہ پر
دشمن تونے کہکر پکارا
کافر کہا کبھی کہا گھستاخ
بھولا تو وہ ہر لمحہ جو تھا ساتھ گزارا
سگریٹ کا دھواں بھی وہی ہے
اور پیالے میں بچی
چاے کی کچھ بوندیں بھی وہی ہیں
جو ہونتھوں کو کبھی تیرے اور میرے چھو کر نکلی تھیں
اور جو یاری کا چھوٹا سا سبوت معلوم ہوتی تھیں
چل پڑا تو اس دگر ، جو تھی کبھی تجھے بھی ناگوار
دور تو ہونے لگا ہوکر ان اجنبی موجوں پر سوار
اور پھر،
اس قدر بات بڑھ جانے لگی
ک بات کیا ہے
یہ سوچ کر ہی ہنسی  آنے لگی 

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