Monday, February 4, 2013

लल्ला मेरी, देख तो ज़रा की सहम रही हैं बेटियाँ तेरी।


gaal ga'ndiy-nyam bol pa'diy-nyam
Dapineym tiy yas yih routse,
Sahaza-kusamav puuz karineym,
Boh amalloun ta kas kyaah mvotse
They may abuse me or jeer at me,
They may say what pleases them,
They may with flowers worship me.
What profits them whatever they do ?
 I am indifferent to praise and blame.
      ~लाल देद 





लल्ला मेरी, 
देख तो ज़रा कि सहम रही हैं बेटियाँ तेरी। 

आँखें खुली उनकी डर के साये में 
चलना सीखा तो लहूलुहान पगडंडियों पर 
लोरी के बदले सुनी कर्कष बंदूकें 
और खेल के मैदान तो कभी उनके थे ही नहीं।

मौसिक़ी, संगीत या चाहे कुछ भी कह लो उसे 
सिर्फ कुछ बोल और हरकतें नहीं हैं,
जिंदा होने का एहसास है।
जिन्हें देखने की इजाज़त नहीं मिली कभी, 
उन सपनों का आगाज़ है।

रंगों को तरसीं जब काली चादर जबरन उढाई 
और बोलने को तरसीं, हर सहर हर शाम 
किताबें तो दास्तानगोई का हिस्सा मालूम होती थी,
कहीं दूर, परियों के देस में जो मिला करती थी।   

कुछ बोली तो मारी गईं, या तेज़ाबी बारिश का शिकार हुईं 
कुछ जिंदा तो रहीं, मगर घर से बेघर हुईं 
जीने की आरज़ू ने केसरिया खेत छुड़वाए ,
उनके बरफ के गलीचे और नीले आसमान भुलाये 
गर्द को ही कोहरा मानकर शायद सब्र कर लेती होंगी। 

अब जब कुछ बुलबुलें चहचहाने लगीं, 
तो मालूम हुआ की फिज़ा बदलने का वक़्त आ ही गया है।
क्या मालूम था मगर कि सय्याद तो फिर भी बैठे हैं ताक़ में 
जो मौसम-ए -बहाराँ को खिज़ां बनाने का ही दम भरते हैं 

और अब फिर से डर की सोहबत में रहने को मजबूर है बेटियाँ तेरी   

लल्ला मेरी, 
देख तो ज़रा कि सहम रही हैं बेटियाँ तेरी।